इस पुस्तक के लेखक
श्री कमलेश्वर जी ने अपने दुसरे संस्करण की भूमिका में लिखा की "कितने
पाकिस्तान" की फोटोकॉपी ८०-१०० में "University of Allahabad" के बाहर मिल रही है और वहां के छात्रो में बेहद लोकप्रिय भी है, भले ही यह बात
प्रकाशक के लिए बुरी हो पर बतौर लेखक ये उनको अच्छा लगा. मानवता के दिलो दिमाग पे, इतिहास और समय की
कराहती और खून से लथपथ दस्तक है ये पुस्तक. चार लघु कहानियां और दो अत्यंत लघु
कहानियों के मार्मिक चित्रण में "अदीब" कुछ ऐसी सच्चाइयों से मुखातिब
होता है जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.
निज स्वार्थ में
लीनता और हर उस वास्तु पे अपने स्वामित्व की लालसा जो स्वयं की नहीं है, इस पाकिस्तान
निर्माण का मूल कारण है. ये पाकिस्तान निर्माण का विवाद मात्र मुग़लिया सल्तनत
वाले हिंदुस्तान में ही नहीं है ये तो पाकिस्तान में पाकिस्तान
(बंगलादेश) में भी है, रूस में है जहाँ १६ पाकिस्तान निकले, इसराइल में है, पुरे मध्य पूर्व
में है, पुरे विश्व में है. पुस्तक का प्रारंभ अदीब और विद्या की यात्रा से होता होता
है और अंत भी दोनों की एक मुलकात से होता है. प्रारंभ में विद्या का नाम विद्या है
पर अंत में विद्या का नाम परी है. प्रारम्भ में विद्या हिन्दू है और अंत में परी
मुस्लिम है. और इन दो मुलाकातों के बीच है भारत पाकिस्तान के बटवारे के सच को
जानने की जद्दोजेहद जिसमे अदीब अपने एक अर्दली की सहायता से अपने न्यायालय में
हाज़िर करता है उन सब लोगों को जिनको जिम्मेदार मन जाता है बटवारे का. ये ६ लघु
कहानियां उस धुरी की तरह हैं जो मानवता के साथ होने वाले बलात्कार को चीख चीख के
बयां करती हैं, जो मानव मात्र के लिए न्याय मांगती हैं, जो अपने घावों को
प्रदर्शित कर के मानवता के मन की कुंठा को दर्शाती हैं, और ये ६ कहानियां
अपनी धुरी पे खड़ी अपने इर्द गिर्द एक नए पाकिस्तान के बनाए जाने के षड़यंत्र को
दर्शाती हैं.
वर्तमान में हो
रही किसी निकृष्ट घटना की जिम्मेदारी भूत पे दाल कर भविष्य में ऐसी और
कारगुजारियों को अंजाम देने के मंसूबों की अत्यंत मार्मिक और अधूरी व्याख्या है ये
पुस्तक. इसे अधूरी इसलिए क्यूंकि संसार का आज का रवैया देख के तो नहीं लगता की हम
कभी भी मानवता, इतिहास, समय को उनके तमाम इलज़ामात का मुआवजा दे पाएंगे, कभी भी उनके घावों
पे मलहम लगा पाएंगे या फिर प्रयास भी करेंगे की अब हम उन्हें आहात ना करें. घर के
बटवारे से लेकर दुसरे देश पर काबिज़ होने की इस विषय व्याप्त अशांति का मुझे तो
कोई अंत नहीं दीखता मालूम पड़ता.